दोस्तों एक नयी कविता लिखी है।अगर दिल को छू जाए तो comment और like ज़रूर कीजिएगा।
शीर्षक -वो कॉलेज के दिन।
हाँ!
मैने लिखा था तुम्हारा नाम..
मेरे कमरे की दिवार पर,
कॉलेज की मेज़ पर,
कॉपी के सबसे आख़िरी वाले पेज पर।
मगर…
ये क्या!
तुमने तो मेरे दिल पर लिख दिया।
उफ़्फ़!
ये क्या किया ?
अमिट निशान छोड़ दिया।
आहा!
वो कॉलेज का पेड़!
जिसके नीचे मिले थे..
वो तो अब भी वहीं खड़ा है,
बस हमारी यादों को लपेटे पड़ा है।
वो तो अब भी वैसा ही हरा भरा है,
हमारी स्टोरी को लपेटे खड़ा है।
ओह हाँ!
हरे भरे से याद आया
फ़िर से क्यूँ वो पेड़ याद आया।
मेरे दिल में भी तो सब कुछ हरा है,
तब जैसा भरा था वैसा ही भरा है।
तुम जाते नहीं दिल से निकलकर
उस कॉलेज की कैंटीन पर नहीं बैठते अब।
अरे
वो कैंटीन वाली तुम्हारी हँसी,
याद आ गयी।
चेहरे पर मेरे आज भी,
मुस्कान आ गयी।
हँसते हँसते तुम्हारे गालों पर
खड्डे पड़ते थे।
और मुस्कुराहट ऐसी,
जैसे फ़ूल झड़ते थे।
उफ़्फ़!
तेरी एक हंसी पर,
हम कितना मरते थे।
हाँ!
आज भी समंदर किनारे जाते हैं।
अकेले बैठते हैं।
तेरा नाम लिखकर मिटाते हैं।
मगर…
कॉलेज के वो दिन!
आज भी याद आते हैं।
अरे कॉलेज से याद आया,
लाइब्रेरी के वो दिन…!
जब तुम और मैं!
किताबों में क़िस्से ढूँढते थे।
आज उन्ही किताबों में,
हमारे क़िस्से लिखे हैं।
क्यूँ आख़िर!
वो दिन बहुत याद आते हैं।
जब भी उदास होता हुँ,
रंगबिरंगे चेहरे याद आते हैं।
रंग से याद आया,
वो याद है…!
होली पर कॉलेज में
धीमे से गालों पर लगा गुलाल।
उफ़्फ़..!
शर्म से हो गए थे तुम एकदम लाल।
हाथों से छूकर तुम्हें,
दिल के तार हिल गए थे।
ऐसे लगा था उस दिन,
जैसे दो प्यार मिल गए थे।
हाँ!
मैने लिखा था तुम्हारा नाम
और हाँ!
आज तक लिखा है तुम्हारा नाम।
नीरज